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पाखी घोड़ा

बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :427
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 743
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है असमिया उपन्य़ास का हिन्दी रूपान्तर....

Pakhi Ghora

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


कथा की पटभूमि असम प्रदेश है,आज का टुकड़े-टुकड़े बँटा-बिखरा नहीं,स्वतन्त्रता पूर्व और प्राप्ति से ठीक बाद का बृहद असम प्रदेश। पश्चिम में कूच बिहार से लेकर पूरब में बर्मा सीमा-रेखा तक,उत्तर में अरुणाचल से दक्षिण में वर्तमान बांग्लादेश,मणिपुर तक की सीमा तक और गुवाहटी के पास के पाण्डुघाट ब्रह्मपुत्र तट से लेकर मणिपुर-नगालैण्ड की बर्मी सीमा तक सघनता से घटिल होते हुए भी कथा-धारा में भारतीय स्वांतन्त्र्य संघर्ष की गहन मीमांसा होने के कारण समस्त भारतीय उत्थान-पतन के साथ इस उपन्यास का घना रिश्ता बना हुआ है। समय की दृष्टि से इसकी व्याप्ति द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्तिम प्रहरों (1944-46) से लेकर भारतवर्ष के स्वतन्त्र होने तक है,जब स्वाधीनता के स्वागत के पहले ही देश को धर्म के आधार पर भारतवर्ष और पाकिस्तान के रूप में दो टुकड़ों में विभाजित करने की कुटिल नीति चली गयी थी। आदर्शवाद और आत्मा की उड़ान को निरूपित करनेवाले इस उपन्यास ‘पाखी घोड़ा’ में बाहरी घटनाओं के बजाय अपने चरित्रों की अन्तश्चेतना का जीवन्त और विचारोत्तेजक चित्रण है।

आमुख

एक लेखक के तौर पर मेरी रचनात्मक चेतना तथा आलोचनात्मक चेतना के बीच निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। किसी रचना पर जब मैं काम कर रहा होता हूँ तो मेरी यही अति आलोचनात्मक चेतना अकसर विवरणों के स्वतःस्फूर्त प्रवाह में अवरोध पैदा करने लगती है। इसके अतिरिक्त उपरिलिखित अन्तःसंघर्ष द्वारा उत्पन्न असंगति अथवा विस्वरता के कारण रचनात्मक सन्तोष का बोध नहीं हो पाता। पर यह उपन्यास ‘पाखी घोड़ा’ पढ़ते हुए मुझे एक विलक्षण आनन्द का अनुभव होता है। लगता है जैसे मैं गुवाहाटी नगर में कॉलेज का ताजा-ताजा स्नातक हूँ। विदेशी सत्ता तथा शिक्षा-प्रणाली से मेरा मोहभंग हो चुका है। विश्वयुद्ध को हमारी इच्छा के विरुद्ध हम पर लाद दिया गया है। चालीस के दशक के असम (अविभाजित) के मेरे अनुभव बहुत ही निराशाजनक हैं। एक पारम्परिक ब्राह्मण परिवार का वंशज होने के नाते जो मूल्य मुझे विरासत के रूप में मिले थे, मैं उन्हें स्वीकार नहीं कर पा रहा था। परिवर्तन तो तब सुनिश्चित ही था—पर केवल मेरे व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं वरन् भारत में तथा विश्व में भी, नयी मूल्य-प्रणाली के विकास की एक मात्र आशा राष्ट्रीय आन्दोलन में निहित प्रतीत हो रही थी। उस समय जो दार्शनिक सवाल, राजनीतिक शंकाएँ पैदा हो रही थीं, साहित्य तथा कला की अन्य विधाओं में नये लोग उभरकर आ रहे थे, उससे यह स्पष्ट था कि एक सांस्कृतिक जागरण का दौर आ गया है। मेरे लिए तो असम तक आ गया विश्वयुद्ध तथा बिखरती पुरानी मूल्य-प्रणालियाँ बुरे और अच्छे का मिश्रण थीं। मैं देख रहा था कि किस तरह ठेकेदार पैसा कमा रहे हैं, कैसे औरत के शरीर को जिन्स बना दिया गया है और कैसे संवेदनशील युवा विद्रोही होता जा रहा है। जब तक स्वतन्त्रता मिल नहीं गयी, तब तक विभिन्न विचारधाराएँ आदमी के मन को इस तरह बहाये लिये जा रही थीं जैसे नदियों के संगम पर नाव डगमगाती हुई चलती है।

अब मैं उन घटनाओं के आईने में अपने जटिल सामाजिक लेकिन व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में बताऊँगा जो मेरे युवा मन के लिए असामान्य तथा कभी-कभी तो दहला देनेवाले थे। यह सब ऐसी भाषा में है कि ऊपरी तौर पर इसमें जितना कहा गया है उससे कहीं अधिक इसमें निहित है। यहाँ पर लेखक का दावा है कि वह एक सर्वज्ञ कथावाचक है। पर प्रत्येक पात्र के पीछे ऐसे लोगों की छवियाँ हैं जिनसे मैं या तो वास्तव में मिल चुका हूँ या उन्हें दूर से देखा है। मैं लगभग यह बता सकता हूँ कि रणजीत या रबिचन्द्र ठाकुर या सुन्दर राभा में किन व्यक्तियों की छवि है पर यह कहना लगभग असम्भव कि ये यथार्थ की अनुकृति हैं। यथार्थ एक भ्रामक शब्द है। इस उपन्यास में यथार्थ की निर्मिति है, अनुकृति नहीं। नवीन के चरित्र के भीतर वे सभी मानसिक संघर्ष चल रहे हैं जिनसे हम अपनी युवावस्था में गुजर रहे हैं। आज के युवक को वह युग भले ही अरुचिकर लगता हो, बल्कि कई बार तो लगता है कि वह युग अनिषेध का, यौनमुक्ति का युग था; फिर भी मैं सोचता हूं कि नवीन के एहसास और उसकी दुविधाएँ उस युवक के लिए बिलकुल यथार्थ हैं जो कुछ मूल्यों से जुड़ा हुआ हो। वास्तव में इस सदी के प्रारम्भिक काल के कई विद्रोही युवाओं की यौन अथवा नैतिक दुविधाएँ गाँधी के विचारों से प्रभावित रही हैं ।

‘मृत्युंजय’ में आपको हिंसा और अहिंसा के बीच जो संघर्ष दिखाई देता है, वह इस उपन्यास में भी आया है। केवल उसका सन्दर्भ बदल गया है। यहाँ इसका सन्दर्भ है ब्रितानी सरकार से भारत के लोगों को सत्ता का हस्तान्तरण, भारतीय नौसैनिकों का विद्रोह, पाकिस्तान के प्रस्तावित ढाँचे में असम को भी जोड़ने की मुस्लिम लीग की साजिश। संयोग से असम के तत्कालीन प्रधानमन्त्री गोपीनाथ बारदोलाई जैसे आदरणीय व्यक्ति इसमें एक पात्र के रूप में आते हैं। बारदोलाई का चरित्र एक ऐसा केन्द्रीय बिन्दु बन जाता है। जिसमें जन-आन्दोलन के दौरान सभी राजनीतिक शक्तियाँ आकर सिमट जाती हैं। वे कैबिनेट मिशन योजना के विरुद्ध एकजुट होती हैं, क्षेत्रीय मानसिकता को राष्ट्रीय मानसिकता से जोड़ने का काम करती हैं और इस प्रकार एक बड़े ढाँचे को सुगठित करने में योग देती हैं। उपन्यास की सीमाओं के भीतर रहते हुए इसमें मैंने चम्पा, ओहाली, माकन, फ़िरोजा, फ़िरोजा का बाप, पंचानन, सदानन्द, जयन्ति, आस्ट्रेलियाई नर्स, अमरीकी प्रोफ़ेसर स्मिथ तथा जापानी सिपाहियों जैसे चरित्र रखे हैं ताकि अतीत के उस तनाव-भरे युग को पुनर्जीवित किया जा सके। चालीस के दशक में असम में मध्यवर्ग को सामाजिक परिवर्तन के संक्रान्ति काल के उस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दौर में चित्रित किया गया है जब वह नैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक संकटों के बीच में घिरा हुआ था। यद्यपि पंचानन नैतिक यौन-बन्धनों को तोड़ने की हिम्मत कर लेता है पर ऐसा करते हुए वह अनजाने ही अपने परिवार को तोड़ने का एक कारण बन जाता है। विवाह के बारे में दादा का प्रायोगिक रवैया दिलचस्प तो है पर अन्ततः सफल नहीं हो पाता। जयन्ति तथा उसके पिता नारायण ओझा यहाँ पारम्परिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रोफ़ेसर रबिचरण दास जब देवदासी नृत्य को फिर से प्रारम्भ करने का प्रयास करते हैं, जब वे असम में विश्वविद्यालय खोले जाने के आन्दोलन से जुड़ते हैं और जब वे फ़िल्म-निर्माण व्यवसाय तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थानीय लोगों को बढा़वा देते हैं, तब उनकी छवि उस व्यक्ति की बनती है जो असम के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के सपने देखता है।

बिमल विद्रोही है और असम के समाज के सांस्कृतिक पुनरुत्थान की उसकी दृष्टि रबिचन्द्र की दृष्टि से भिन्न है। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं किया गया है पर सुन्दर राभा के प्रयास उसकी इस सोच के निर्माण में आंशिक रूप से सहायक हुए हैं। माहिम युद्ध के दिनों के ठेकेदार का प्रतीक है। उसकी पत्नी सुदर्शना एक कुण्ठित तथा दुखी पत्नी की छवि को दर्शाती है जो मानसिक खुशी की खोज में है। नवीन के प्रति उसके प्रेम तथा उसकी मानवतावादी दृष्टि के मूल्यों की रक्षा करने के लिए उसके मन में चल रहे संघर्ष की पीड़ा से भी हमारा परिचय होता है। रंजीत एक ऐसा चरित्र है जो कारूणिक तो है पर माकन के मंगेतर के रूप में अपनी नैतिक स्थिति के प्रति पूरी तरह से सचेत है और उसके विवाह न करने का उचित निर्णय लेता है यहाँ पर मैं पूरी कथावस्तु की चर्चा नहीं करना चाहता और न असली समाज के उस विस्तृत परिदृश्य को उसके विकास के दौरान संकट के क्षणों को ही चित्रित करना चाहता हूँ जो इस उपन्यास की आधार-वस्तु है। पर सुमति के बारे में दो शब्द कहना मैं जरूरी समझता हूँ। यह एक ईसाई महिला है जो स्वेच्छा से ब्रहचर्य का मार्ग चुनती है। वह नवीन को प्रेरित करती है कि वह गाँधीजी द्वारा दिखाए गये रचनात्मक कार्यों को करते हुए समाज के पुनर्निर्माण के कार्य में लगा रहे। बिमल की मृत्यु के बाद वह हिंसा के मार्ग को त्याग देती है और सामाजिक कार्यकर्ताओं में एक नयी चेतना का मार्ग प्रशस्त करती है। इस चरित्र को निरूपित करते हुए मेरे मन में उस समर्पित असमी महिला की छवि रही जो आज भी रचनात्मक कार्यों की भावना तथा उनके लिए जीवन समर्पित करने की प्रतीक बनी हुई है। जो भी असम को जानता है, उसे भी जानता होगा। पर मैं उसका नाम नहीं लूँगा क्योंकि सुमति को पूरी तरह से उसकी अनुकृति नहीं कहा जा सकता। कम-से-कम ऊपरी तौर पर तो उस महिला तथा मेरे इस चरित्र में कोई साम्य नहीं है। और फिर वह तो कई कार्यशील महिलाओं की एक प्रारूप है जिनमें जयप्रकाश नारायण की पत्नी स्वर्गीया प्रभावती देवी भी शामिल हैं।

केवल मनोरंजन के लिए कहानी मैं कभी नहीं लिख पाया। कोई-न-कोई उद्देश्य मेरी रचनाओं में आ ही जाता है। दिक् और काल भूत की तरह मेरे पीछे लगे रहते हैं। मैं अब भी एक ऐसी विवरण-शैली की तलाश में हूँ जो मेरे लिए अधिक अनुकूल हो, मैं आशा करता हूँ कि अपना अगला उपन्यास लिखते हुए मैं उसे पाने में सफल हो जाऊँगा। इस समय मैं नये तरह के अनुभवों से गुजर रहा हूँ। भारत को मैं जितना इस उपन्यास को लिखते हुए जानता था, अब उससे अधिक जानने लगा हूँ। इस सबको मैं असमी भाषा में चित्रित करने की कोशिश करूँगा, सम्भवतः तब जब मैं साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष के रूप में अपनी वर्तमान जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाऊँगा।

पाठकों की सामान्यतः मेरे प्रति कृपा रही है। उनकी यह उदारता मुझे प्रोत्साहित करती है। मैं भारतीय ज्ञानपीठ का आभारी हूँ जिन्होंने अपनी नयी उपन्यास-श्रृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित करने के लिए मेरे उपन्यास पाखी घोड़ा को चुना। कम-से-कम आध्यात्मिक रूप से मैं अपने-आपको ज्ञानपीठ परिवार का एक सदस्य मानता हूँ।
उपन्यास का मूल शीर्षक असम की एक लोककथा से लिया गया है जिसमें फूलों का राजकुमार पंखोंवाले घोड़े पर बैठकर अपनी प्रेमिका को पाने के लिए एक जोखिम भरे लक्ष्य पर निकलता है। ‘पंखों वाला घोड़ा’ आदर्शवाद तथा आत्मा की उड़ान को निरूपित करता है। यह उपन्यास बाहरी घटनाओं के बजाय अपने चरित्रों की अन्तश्चेतना का ही चित्रण करता है।

प्रथम खण्ड

रेलगाड़ी का पहिया धीरे-धीरे घूमने लगा। ठीक वैसे ही जैसे सुमति बड़ी बहन जी के चर्खे का गोला महात्मा गाँधी की जन्म-जयन्ती पर सूत कातने की प्रदर्शनी में घूमता है।
उस समय सूर्य भगवान अस्ताचल को जा रहे थे। अमीन गाँव स्टेशन (पूर्वोत्तर सीमा रेलवे का ब्रह्मपुत्र के दाहिने किनारे स्थित) का प्लेटफार्म आवाजों की गड़गड़ाहट से भर गया। और इस आवाज की चोट से सुमति बड़ी बहन जी का कलेजा जैसे फाँक-फाँक चिरने लगा। रेलगाड़ी की चाल क्रमशः बढ़ने लगी। कुछ क्षण बीतते-बीतते वह दूर आकाश पर छाये रंग-बिरंगे बादलों और हरे-भरे जंगलों की आड़ में क्रमशः छिपती हुई फिर ऐसी गुम हो गई कि फिर दिखाई ही न पड़ी। कोयले का धुआँ (जो वाष्प चालित इंजन से उठ रहा था) हवा के झोंकें पर चारों ओर उड़ने लगा।
संघ के संचालक विमल भाई को राजयक्ष्मा (तपेदिक) रोग के जकड़ लेने के समय से आज तक काफी लम्बा अर्सा गुजर चुका है। यह जो रेलगाड़ी अभी-अभी क्षितिज के पार ओझल हो गई है, वह अपने साथ उन्हें भी बैठा ले गई है। वे मदनापल्ली (दक्षिण भारत) तक जाएँगे। (जिस समय की यह बात है) तब तक वही एक मात्र ऐसा स्थान था जहाँ इस भयानक रोग की सफल चिकित्सा हो सकती थी। परन्तु सुमति बड़ी बहन जी यह बात भी बहुत अच्छी तरह जानती हैं कि वहाँ से भी स्वस्थ-दुरुस्त होकर बहुत कम ही आदमी लौट पाते हैं।

सुमति बड़ी बहन जी खद्दरधारी सभ्यता की सच्ची प्रतिनिधि हैं। उनकी लंबी, सुगठित सुडौल और साँवले रंग की देह-यष्टि पर खद्दर का ही परिधान है, साड़ी और ब्लाउज का परिधान। बगल में कंधे से लटक रहा खादी का ही झोला है। गाड़ी चली जाने पर भी वे बहुत समय तक रुमाल हिलाती रहीं थीं।
सुमति बड़ी बहन जी में सचमुच ही एक प्राण है। वह प्राण ब्रह्मपुत्र नदी की तरह साफ-सुथरा पवित्र और बराबर प्रवाहित होता रहनेवाला है। कहीं बहुत-बहुत ऊँचाई पर चिरन्तन काल से सफेद बर्फ की राशि-राशि से ढँकी-हिमालय की पर्वतमालाओं के बीच एक मानसरोवर है वहीं उनके प्राणों के ब्रह्मपुत्र का उद्गम स्थान है।
उनका वही प्राण राजहंस पक्षी बनकर वहीं उड़ता चला जाता है।
विमल भाई साहब और सुमति जी का प्रथम परिचय कुछ वर्षों पहले हुआ था, दीमापुर (असम) स्थित उद्वास्तु (अपनी जगह छोड़कर भागने को मजबूर) शरणार्थी शिविर में। नवीन उन लोगों के उस प्रथम परिचय की सारी कहानी अच्छी तरह जानता है। एक और आदमी भी जानता था, और वह आदमी था शेट्टियार। उसका मुरझाया चेहरा अभी भी नवीन को पूरी तरह याद है।

आज जिस तरह विमल भाई साहब विदा हुए, ठीक उसी तरह एक दिन साँझ की बेला में शेट्टियार जी भी दीमापुर रेलवे स्टेशन से रेलगाड़ी में विदा हो गये थे। जाते-जाते भी उन्होंने विमल भाई साहब के हाथ में एक हज़ार रुपये सौंपते हुए कहा था—‘‘आप लोग आपस का संबंध तोड़कर कभी अलग मत होइएगा। अपने इस संघ को जिन्दा किए रखिएगा।’’ विपश्चित ऋषि की इस बात को कभी मत भुलाइएगा कि—‘‘दीन-हीन-दुखी-पीड़ित जीव के दुःख को दूर करने के लिए अगर मुझे नरक में जाना पड़े तो वहाँ भी चला जाऊँगा। वस्तुतः इस प्रकार का सेवा-भाव ही मनुष्य की वास्तविक सम्पत्ति है। और बाकी जो सारी चीजें हैं वे सब तो फुटुका (असम प्रदेश में होनेवाला एक जंगली पौधा, जिस पर क्षण भर के लिए दूध के फेन जैसे बुलबुले उठते हैं और फिर तुरन्त ही खत्म हो जाते हैं) पौधे पर उभर आये क्षणस्थायी फेन की तरह हैं। आपने तो देखा ही कि आखिर मेरा क्या हुआ।’’

शरणार्थी शिविर के सेवा आश्रम के लिए तो सुमति बहन जी जैसे फ्लोरेंस नाइटिंगेल थीं। वहाँ के सभी लोग उन्हें देवी की भाँति समझते थे। और विमल भाई साहब तो सेवा आश्रम के प्राण ही थे। एक दूसरे की निस्वार्थ सेवा-भावना को देख-देखकर परस्पर विस्मय-विमुग्ध होकर वे दोनों ही एक-दूसरे के अत्यन्त अन्तरंग मित्र बन गये। परन्तु यह आन्तरिक बन्धुत्व बस उसी सीमा तक चिरस्थायी बना रह गया। उनमें से किसी एक ने भी वैवाहिक बन्धन में बँध जाने की इच्छा नहीं की। उस जमाने में प्रायः ही जो समाज सेवक या सेविकाएँ थे। उन सबकी यह धारणा-सी बन गई थी कि शादी-ब्याह रचाकर गृहस्थी बना लेने पर कोई अच्छा सेवक नहीं बन सकता।

शेट्टियार जी अभी भी मद्रास में निवास कर रहे हैं। उन्होंने ही विमल भाई साहब को मदनापल्ली में अपने पास बुला लिया है। उन्होंने तो सुमति बहन जी को भी बुलाया था परन्तु सुमति जी पर ही तो अब विमल भाई साहब के तमाम अधूरे पड़े कामों को पूरा करने का भार आ पड़ा है। विशेष रूप से विश्वविद्यालय के लिए धन-संग्रह करने का भार। अभी तक उन लोगों के संघ ने ही सबसे अधिक चन्दा इकट्ठा किया है।

प्रत्येक वर्ष शेट्टियार जी एक दिन अपनी पत्नी और परिवार से सभी दिवंगत हो चुके सदस्यों की यादगार मनाते हैं। उस दिन वे निश्चित रूप से विमल भाई साहब के पास पत्र भेजते हैं।
उस पत्र में वे प्रायः ही उस महाविपत्ति के दिनों की बातों का उल्लेख करते हैं। उन पत्रों को पढ़ते-पढ़ते ही नवीन के मन में वे सारी-की-सारी घटनाएँ बिल्कुल स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो उठती हैं।

वह विश्वयुद्ध (द्वितीय) का समय था। अपने सैनिक विजय अभियान में जापान की सेना ब्रह्मा देश तक घुस आई थी। (उनके अत्याचार से पीड़ित) ब्रह्मा देश में रहने वाले भारतीय नागरिक पहले अहोम लोग जिस पातकाई के रास्ते से आये थे उसी रास्ते से और मणिपुर प्रदेश के तामोर के रास्ते से होकर (पैदल-पैदल) अपने देश की ओर भागे चले आ रहे थे। भारतवर्ष में प्रवेश करने के लिए पहले उन्हें बहुत लम्बें अत्यन्त दुर्गम पहाड़ी और जंगली इलाकों, जो नाना प्रकार की विपत्तियों से भरे थे, से होकर पैदल-पैदल ही आना पड़ता था। रास्ता इतना बीहड़ और खतरनाक था कि उस रास्ते से आते-आते बहुत से लोगों ने तो अपना सब कुछ गँवा दिया था।
कई-कई परिवार तो इसी रास्ते के चक्र में दब-पिसकर नेस्त-नाबूद हो गये थे। अनेक लोगों की सारी सम्पत्ति जो कुछ भी उनके पास बची-खुची थी, सभी कुछ रास्ते में डकैतों ने लूट ली। इसके अलावा शरीर से भी जो लोग बहुत ही हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ थे। उनमें से भी कई भारत पहुँचते-पहुँचते सूखकर काँटा हो गये थे बस हड्डियों और चमड़ियों की ढेरी जान पड़ रहे थे।

शेट्टियार जी जब रंगून शहर से भारत के लिए चले थे तो उनके साथ उनकी धर्मपत्नी जो लगभग पूरे गर्भ से थीं, उनकी विवाह योग्य नवयुवती कन्या और कामकाज में कुशल स्वस्थ-समर्थ उनका बेटा, परिवार के ये सभी सदस्य साथ थे। सैनिकों की एक टुकड़ी के पहरे में वे लोग अत्यन्त घने जंगलों और अति कठिन चढ़ाई वाली पहाड़ियों के रास्ते से होकर, कई-कई दिनों तक लगातार भूखे-प्यासे बिना कुछ खाये-पिये घिसटते चले आ रहे थे, कि तभी अचानक एक दिन बेटे के पेट में ऐसा असहनीय दर्द उठा कि उसी से छटपटाते-छटपटाते उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। और फिर एक दिन के बाद ही लड़की की भी मौत हो गई। उसकी मौत भयानक जंगली काला नाग के काट खाने से हुई। और ठीक उसी दिन उनकी धर्मपत्नी को भी प्रसव वेदना की भयानक पीर उठनी शुरू हो गई। लगातार तीन घण्टे तक उस दारुण वेदना को झेलते-झेलते उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया, परन्तु उस यन्त्रणा में वे खुद स्वर्ग सिधार गईं।

उस नन्हें शिशु को अब जिलाए रखने की भारी समस्या आ खड़ी हुई। उस बीहड़ जंगल में बच्चे के खाने लायक पदार्थ का तो कहीं नामोनिशान नहीं, ऊपर से उस गहन वन में उसे दूध पिलाने लायक कोई महिला भी नहीं मिल सकी।
शरणार्थियों के उस दल को जो सैनिक अधिकारी अपनी देखरेख में लिये जा रहे थे, उनके मुखिया ने ऐसी दशा में उस नन्हें बच्चे को और कष्ट न देकर मार्फिया इन्जेक्शन की अधिक मात्रा चढ़ाकर शान्ति से मरवा देना ही उचित समझा। वैसे तब तक तो बिना खाए-पिए जीता हुआ वह बच्चा यूँ ही मरने-मरने को हो चुका था।

उस दल के साथ जो डॉक्टर साहब थे, उन्होंने शेट्टियार के देखते-देखते ही उस नन्हें बच्चे को मार्फिया की सूई घोंप दी। जैसे नयी-नयी ब्याई (लवाई) गाय अपने नवजात बछड़े की रक्षा में बिना कुछ कहे-सुने ही, जिससे बच्चे की सुरक्षा का खतरा समझती है, उसे मारने के लिए सींग से कोंचने दौड़ी चली जाती है, उसी तरह अचानक ही शेट्टियार डॉंक्टर को मारने दौड़ पड़े थे। परन्तु अब मारने-पीटने से ही क्या होना था। थोड़ी देर बाद ही बच्चे की भी मौत हो गई। उसके मुँह पर एक प्रशान्ति छा गई। उस नन्हें बच्चे के मुर्दा शरीर को छाती से चिपकाए शेट्टियार बहुत देर तक जोर-जोर से बिलख-बिलखकर रोते रहे। परन्तु उस महाविपत्ति के समय तो रोने-कलपने को भी समय नहीं था। उसका शव तुरन्त ही गड्ढा खोदकर गाड़ दिया गया। उसकी समाधि पर एक मुट्ठी मिट्टी डाल देने के अलावा शेट्टियार उस नन्हें शिशु को और कुछ भी नहीं दे सके। वैसे उस समय अभी उनके पास रुपये-पैसों से भरी गठरी सुरक्षित थी, परन्तु धन की वह गठरी क्या कर सकती थी ?
शेट्टियार के मन में दृढ़ अनुभूति हुई कि इस संसार की कोई भी चीज स्थायी नहीं है, स्थायी है तो केवल परमात्मा।
और यह बात वे विमल भाई साहब को प्रायः ही लिखते रहते हैं। उस ब्रह्मवादी शेट्टियार महोदय के दीमापुर शिविर में फूट-फूटकर रोने के दृश्य नवीन को अच्छी तरह याद है। अपने परिवार के उन आकस्मिक रूप से मरे हुए सदस्यों को उन्होंने सपने में देखा था और उन्हें देखते ही उस दुःखद दृश्य को सहन न कर पाने की व्याकुलता से ही वे चिल्ला-चिल्लाकर रो पड़े थे। आज की तरह ही एक रेलगाड़ी शेट्टियार जी को उस दिन पश्चिम की ओर ले गई थी।

परन्तु उसी शेट्टियार महोदय ने जब सुमति बड़ी बहन जी को देखा था, तो वे रोना-धोना एकदम भूल गए।
अपनी एक चिट्ठी में शेट्टियार जी ने लिखा था—यह जीवन भी एक रेलगाड़ी है और मृत्यु यात्रा शेष का आखिरी स्टेशन है। इसी तरह यात्री आते हैं और जाते रहते हैं।
नवीन को प्रायः ही ऐसा लगता है कि सुमति बड़ी बहन जी के प्राण मृत्यु का स्पर्श भी नहीं करते। मृत्यु कब कौन-सा वेश धरकर आएगी ? कोई नहीं बतला सकता। कभी वह एक मुख धारण करके आती है तो कभी हजारों मुँह लगाकर आती है। उस समय मृत्यु हजारों मुखों वाले विकट राक्षस के रूप में ही आई थी।
परन्तु यह कहना सच ही होगा कि सुमति बहन जी को मृत्यु का लेशमात्र भी डर भय नहीं है। उनके मुख पर तो मृत्यु को जीत लेने वाली एक हँसी बराबर बनी रहती है। यद्यपि वह हँसी एकदम मौन और शान्त है परन्तु है अपराजेय, कभी भी दमित नहीं हो सकने वाली, चिरन्तन हँसी।

इस संसार में मर्दों के भय के अलावा भी नारी जाति के लिए और न जाने कितने प्रकार के भय हैं। परन्तु नवीन को लगता है कि सुमति बहन जी को तो किसी भी चीज से कोई भय-डर है ही नहीं। उन्हें देखने से तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि जीवन एक हँसी-मजाक से भरा क्रीड़ा-कौतुक है।
सन् 1942 ई. के उस विद्रोह की वेला में नवीन सुमति जी के साथ-साथ उनकी छाया की तरह असम प्रदेश की भिन्न-भिन्न जगहों में घूमता फिरता रहा था।
आन्दोलन के समय की एक घटना जब भी उसे याद आती है तो अकेले-अकेले में भी नवीन का हँसते-हँसते दम फूलने लगता है।
उस समय उस आन्दोलन के केन्द्र में सुमति जी एक प्रमुख दूत की तरह थीं और नवीन था एक अत्यन्त विश्वसनीय सेवक। रेलगाड़ी में सफर कर-करके वे लोग नाना स्थानों पर चिट्ठी-पत्र प्रचार सामग्री और नेताओं के आदेश-निर्देश पहुँचाते रहे थे। कभी आन्दोलन के स्वयं सेवकों को देने के लिए, वे रुपये, पैसे दवा-दारू वगैरह भी ले जाकर पहुँचाते थे, तो कभी हथगोले और राष्ट्रध्वज (तिरंगा झंडा) भी ले जाते थे।

एक बार विमल भाई साहब ने निर्देश दिया, असम प्रदेश के पूर्वोत्तर सीमान्त की ओर जाने का, जहाँ से असम उपत्यका की नदियाँ बहकर आती हैं। अतः नाना प्रकार की प्रचार-सामग्री और कुछ धनराशि लेकर उन्हें डिब्रूगढ़ जाना आवश्यक हो गया था। उस समय वे लोग भूमिगत होकर गोहाटी शहर में छिपे हुए थे। सुमति बहन जी फिरोजा के पास थीं। नवीन दुदू के एक करीबी रिश्तेदार के घर पर छिपा था। परन्तु उनके गोहाटी आने की सूचना पुलिस को पहले ही कहीं से मिल गई थी। इसी वजह से रेलवे स्टेशन पर (ब्रह्मपुत्र के किनारे) जहाज के फेरी घाट पर, ग्रैंड ट्रंक रोड स्टेशन पर सभी जगह पुलिस के सिपाही चौकसी करते हुए पहरे पर डँटे थे। दुदू चूँकि पुलिस इंस्पेक्टर का बेटा था, अतः किन्ही सूत्रों से इन सारी संभावित विपत्तियों की सूचना उसे मिल गई और तब जाने के दिन बड़े भोर में ही उसने उन दोनों को ही इसकी सूचना दे दी। परन्तु ऐसी दहला देने वाली खबर पाकर भी सुमति जी रंच मात्र भी विचलित नहीं हुईं। उन्होंने दुदू को एक पत्र लिखा—अरे इसमें इतना अधिक परेशान होने की कोई वजह नहीं है दुदू। तुम बस इतना करना कि नवीन को असमीया लोगों के शादी-ब्याह में दूल्हे जो जामा-जोड़ा पहनते हैं, वही पहनाकर ठीक पक्के दूल्हे के वेश में सजा-सँवारकर एक मोटरकार में बैठाकर ठीक समय पर मेरे यहाँ लिवा लाना।
उस दिन रात में रेलगाड़ी से उनके रवाना होने का कार्यक्रम निर्धारित था।

नवीन, दुदू और माकन सभी के सभी पत्र पढ़कर आश्चर्यचकित से रह गए। परन्तु बड़ी बहन जी ने जो सुझाव दिया था उसे न मानने की हिम्मत किसी को नहीं हुई।
एक मोटरकार का जुगाड़ करके साँझ की बेला में दुदू नवीन के पास जा पहुँचा। इस बीच दुदू की छोटी बहन माकन ने असमीया दूल्हे की सारी साज-पोशाक अच्छी तरह पहनाकर नवीन को तैयार कर लिया था। दुदू ने खुद भी वेश-परिवर्तन कर लिया था, उसने अंग्रेज अफसरों की तरह कोट-पैंट पहनकर, हैट लगाकर ऐसा वेश बना लिया था, कि पहचान में ही नहीं आ रहा था। परन्तु उसने जब नवीन को सजा-सँवरा देखा तो उसे अपने उस छद्यवेश पर बहुत पछतावा हुआ। सर पर बहुत अच्छी कढ़ाई का काम की हुई असमीया पगड़ी, शरीर पर लंबा-चौड़ा रेशमी जामा-जोड़ा नीचे कमर में लिपटी विशुद्ध रेशमी धोती, नाना प्रकार की फूल-पत्तियों की बारीक कढ़ाई का काम किया हुआ दुपट्टा ओढ़कर नवीन पूरी तरह एक राजकुमार सा सुशोभित हो रहा था। इस सुन्दर पुराने जामा-जोड़े को अपने घर की एक बहुत ही पुरानी सन्दूक से खोज-ढूँढ़कर माकन निकाल लायी थी। दुदू को देखते ही माकन तालियाँ बजा-बजाकर हँसने लगी।
थोड़ी देर बाद ही उस सजे-धजे दूल्हे को बाहर ले आकर माकन ने मोटर कार की पिछली सीट पर बैठा दिया। स्वयं भी वह बड़े सहज ढंग से उसकी बगल में बैठ गई। फिर एक पाइप जलाकर मुँह में लगाए हुए दुदू भी अन्दर आ गया और चालक (ड्राइवर) की सीट पर जा बैठा।

कुछ समय बाद ही लगभग एक मील चल लेने पर मोटर कार फिरोजा के घर के सामने फाटक पर आ पहुँची। दुदू ने भोंपू बजाकर आने की सूचना दी। एक नौजवान लड़का घर में से एक भारी बक्सा ले आया और कार के पीछे जमीन पर रख दिया। दुदू ने बाहर आकर कार के पीछे सामान रखने की डिक्की खोल दी, उस लड़के ने बक्से को फिर उठाकर उसमें रख दिया। दुदू ने डिक्की का दरवाजा बन्द कर दिया और फिर आकर अपनी सीट पर बैठ गया।
पाँच मिनट बीतते-बीतते ही फिरोजा ने अन्दर से ओढ़नी चादर से ढँकी और कामदार बेलबूटे कढ़ी बनारसी साड़ी और ब्लाउज में सजी-सँवरी सुमति जी को बाहर ले आकर मोटरकार की पिछली सीट पर माकन के पास बैठा दिया।
माकन ने व्यग्र होकर पूछा, क्यों फिरोजा ! तू नहीं जाएगी ?

क्यों नहीं जाऊँगी ? अरे धुर बचपन से ही हम-तुम मिलकर जो दूल्हे-दुल्हन बनने-बनाने का खेल खेलते रहे हैं सो क्या तुम्हें याद नहीं है ? आज इस जवानी की बेला में जब फिर ऐसा सुयोग पाया है, तो भला इसे हाथ से कैसे जाने दूँगी।
फिर तो माकन को जो खुशी हुई उसकी समता कौन कर सके ? कार चलने लगी। और पूरे रास्ते दोनों चहक-चहककर विवाह के मंगल गीत गाती रहीं। इसी तरह हँसी-मजाक करते मौज-मस्ती से उन्होंने सुमति जी और नवीन को रेलगाड़ी के एक प्रथम श्रेणी के डिब्बे में चढ़ाया।
उस समय सुमति बहन जी ने भी हँसते-हुए माकन से कहा, यह तो बस चौबीस घण्टे का घर-संसार है, पति-पत्नी का रूप है। फिर तो मैं इस दूल्हे को इसी साज-पोशाक में तुम्हें सौंप दूँगी। समझ रही हो न। मगर तुम जरा भी नाहीं-नुकुर नहीं कर सकोगी। जैसे मैं कहूँगी उसी मुताबिक काम करना पड़ेगा।

माकन उस दिन अचानक एक दम मौन रह गई। मारे लाज के गड़-सी गई सारा हँसी-ठट्टा जैसे गायब हो गया।
इस तरह दूल्हा-दूल्हन सजाकर विवाह सम्पन्न करवाने का वह नाटक उस दिन बहुत अच्छी तरह सफल हो गया। चारों ओर सजग चौकसी करने वाले पुलिस के सिपाही जरा-सा भी पता नहीं पा सकें। रेलगाड़ी से सफर करते हुए भी सारे रास्ते सुमति जी और नवीन ने असमीया विवाहोत्सव के उपरान्त आठ-दिन बीत जाने पर आठ मंगला भोज खाने जाने वाले नव विवाहित वर-कन्या का अभिनय बड़ी निपुणता से किया।
उस दिन के उस नाटक की बात याद आती है तो आज भी नवीन हँसी से लोट-पोट हो जाता है।
अपने इस जीवन में उसने वर बनने का दूल्हे के रूप में सजने का नाटक तो किया परन्तु सचमुच का वर वह कभी नहीं बन पाया। इसका एकमात्र कारण यही है कि अभिनय या नाटक करना तो सरल है मगर जीवन एक बहुत ही जटिल व्यापार है।

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